बाढ़ और सूखे के संकट संकटों से जूझते हुए समाज हमेशा अपने जीवट का परिचय देता रहा है। सूखे और अकाल के सबसे कठिनतम दौर राजस्थान के समाज ने झेले हैं। लेकिन समाज ने कभी हिम्मत नहीं हारी और वर्षा की बूँदों को चांदी समझ कर गुल्लकों जैसे तालाब ,बावड़ियों, कुएं में संभाल सहेज कर रखा। जल सहेजने के लिए राजपूताना, बीकानेर रियासत में चूरू, मरुभूमि का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है ।
रंतीले इस क्षेत्र में नदियों का अभाव रहा है। एकमात्र खारे पानी की छोटी-सी ताल-छापर झील है। जीवन पूरी तरह वर्षा जल पर ही निर्भर है । कंजूस वर्षा 11-12 इंच होती है और 1892 में यहाँ सर्वाधिक 45 इंच वर्षा हुई थी। इसलिए वर्षा जल को यहाँ सालभर के लिए सहेज के रखते थे।
मरुभूमि का समाज संस्कृति को अपनी ढाल बनाता रहा है । इनकी दिनचर्या इन्हीं जलाशयों के इर्द-गिर्द घूमती थी और जलाशयों को माजिक-सांस्कृतिक, धार्मिक, अनुष्ठानों से भी जोड़ा और विशिष्टता प्रदान कर समाज को पानीदार बनाया। शुभ-अशुभ कार्य जलाशयों के पास ही सम्पन्न होते थे।
हळ-खळ, हळ-खळ नदी ए बहवै, म्हारी बनड़ीध्बन्ना मळ-मळ न्हावै जी…।
मै तनै पुछू ए लड़ली तनै न्हावण को कुण्ड कुण घड़यो….। इस गीत में जल से जुड़े रीति – रिवाजों के साथ जल संभालने वाले बर्तन ,
मटका और नहाने वाला कुंड किसने बनाया । इंद्र देव को प्रसन्न करने के लिए जोहड़े के किनारे हवन, यज्ञ किया जाता था। सामाजिक-सांस्कृतिक लोक उत्सव एवं मेले तालाबों अथवा अन्य जल स्त्रोतों के पास मनाए जाते थे।
जलाशयों के निर्माण, खुदाई एवं मरम्मत को पुण्य कार्य माना जाता था। इस कार्य में बिना ऊंच – नीच ,जातिभेद सभी अपनी भागीदारी निभाते थे । 19 जलाशय निर्माण में विशिष्ट भूमिका निभाने वालों में कुछ नए वर्ग भी बन गए, जिनमें माली, गजधर, सूंघिया एवं चैजारे थे। इनको समाज में सम्मानित स्थान प्राप्त था। समय≤ पर इन्हें भोजन व नेगचार दिया जाता।
निष्कर्षतः जलाशयों से आत्मीय संबंधों ने समाज को प्रत्येक स्तर पर मान – प्रतिष्ठा प्रदान दी। इसकी पुष्टि प्रख्यात विद्वान टोड के इस कथन से भी होती है कि चूरू, राजगढ़ तथा रेणी के बाजार सिंधु एवं गंगा के प्रदेशों से आयतित माल से भरे रहते थे। आज भी यहां का समाज इन जलाशयों को देव तुल्य मान कर पूजता है।